सः एष रसानां रसतम्ः परमः परार्ध्योऽष्टमो यदुद्गिथमः ।।३।। (छांदोग्य उपनिषद)
- जितनी सार वस्तु होती है याने सृक्ष्म होती है, उतनी वह पूजनीय है, पृथिवी ओर जलका सार अन्नादिक है; इसालिये पृथिवी ओर जलकी अपेक्षा अन्नादिक अधिक पूजनीय है; इसी कारण अन्न को देवता कहा हे, “ अन्नेब्रह्मेति ” अन्नका सार पु- रुष है, इसलिये अन्न की अपेक्षा पुरुष अधिक पूजनीय हे, ओर पुरुष का सार वाणी है, जिस पुरुष की जिह्वा पर सरस्वती का वास होता है, वह अधिक पूजनीय होताहै, ओर वाणी का सार ऋचा है, याने जो पुरुष वेद का जाननेवाला हे वह ओर भी आधिक पूजनीय है, ओर ऋचों का सार सामवेद है, इसलिये जो पुरुष सामवेदी हे, ओर सामवेदों के मंत्रों करके परमात्मा का गान करता है, वह ओर भी आधिक पूजनीय है, ओर सामवेद का सार ॐ, या उद्गीथ है, इसी उद्गीथ या ॐ की उपासना जो महात्मा पुरुष करता है, वह आतिपूजनीय है, यह उद्गीथ, रसतमः, परमः, पराध्येः, इन तीन विशेषणों करके युक्त होने से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ माना गया है, इस कारण जो पुरुष इसकी उपासना करता है, वह भी श्रेष्ठ से श्रेष्ठ ब्रह्मरूप होजाता है ॥ ३॥
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